पिछले ब्लॉग में हम ने पढ़ा कि किस तरह से हमारा मन एक समस्या का समाधान होने से पहले ही दूसरी समस्या निर्मित कर लेता है । अधिकतर हमारा मन जिन समस्याओं को निर्मित करता है, वे समस्या सिर्फ और सिर्फ हमारा भ्रम होती है । वास्तविकता में शायद ही कभी कोई समस्या होती हो, हमारा मन भविष्य के बारे में और अतीत के बारे में सोच सोच कर नयी समस्याएँ निर्मित कर लेता है ।
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क्या समस्याएँ निर्मित करने वाले मन के इस तंत्र (mechanism) को समझा जा सकता है? क्या मन की इस अद्भूत क्षमता को जिससे अंतहीन समस्याएँ निर्मित हो रही है, उसे बदला जा सकता है? क्या इस तंत्र को नियंत्रित किया जा सकता है?
शायद यह हो सकता है । इसके लिए जहाँ पर यह समस्याएँ निर्मित हो रही हैं, उस मानसिक तंत्र का हमें अवलोकन करना होगा । जागरुकता के साथ हमें यह देखना होगा कि हमारा मन किस तरह से समस्याएँ पैदा कर रहा है । इस जागरुकता से हमें अपने मानसिक तंत्र का कार्य स्पष्ट होगा । हमें यह दिखाई देने लगेगा कि किस तरह से हमारा मन अनावश्यक समस्याओं को निर्मित कर रहा है और हम उसमें उलझते जा रहे हैं ।
उदाहरण के तौर पर, कई बार हमारा मन भविष्य के संदर्भ में चिंता और डर से भर जाता है । असल में जो हुआ नहीं है या होने की संभावना भी नहीं है, उस पर सोचने के कारण हम चिंता और डर से घिरने लगते हैं । ये भावनाएँ हम पर इतनी हावी हो जाती हैं कि हम कुछ भी करने में असमर्थ महसूस करने लगते हैं । ऐसा महसूस होने लगता है कि मानो ज़िन्दगी अब खतम होने वाली है । चिंता और डर के कारण हमसे जो हो सकता है, हम वह भी नहीं कर पातें, हम ठिठक जाते हैं और टूटने लगते हैं ।
क्या इस चिंता और डर का हम अवलोकन कर सकते हैं? सही मायने में हम अगर इसका अवलोकन करते हैं, तो सिर्फ अवलोकन ही यह समझाने में सक्षम होगा कि ‘चिंता और डर’ के निर्माण की पूरी मानसिक प्रक्रिया मूर्खता से भरी है । जैसे ही आपको यह महसूस होगा कि आप जिस तरीके से ‘चिंता और डर’ के बारे में सोच रहे हैं, वह मूर्खतापूर्ण है, वैसे ही ‘चिंता और डर’ के उत्पत्ति की पूरी मानसिक प्रक्रिया थम जाती है । आपको यह समझाना नहीं पड़ेगा कि ‘चिंता और डर’ को छोड़ो, यह छूट जाएगा । फिर से दोहराता हूँ, यह छूट जाएगा ।
इस पर शायद कोई ये कह सकता है कि हम ने कई बार अवलोकन किया है, अपनी निराशा का, डर का, चिंता का, पर कुछ भी नहीं हुआ ।
तो यहाँ पर दो बातें हो सकती हैं । –
१. सही तरीके से अवलोकन करने के बाद ‘समस्याओं को पैदा कराने वाला मानसिक तंत्र’ छूट जाना चाहिए तथा समस्याएँ विलीन हो जानी चाहिए ।
२. कई बार समस्या का अवलोकन करने के बाद भी समस्याएँ अगर विलीन नहीं हुई हैं, तो इसका सीधा मतलब यह भी हो सकता है कि आपने सही ढंग से अवलोकन किया ही नहीं है, आपने जो कुछ किया है, उसे ही अवलोकन समझ बैठे हैं ।
इस लिए अवलोकन के संदर्भ में कुछ विचार करना जरुरी है । आपके सामने एक गुलाब का फूल है, आप उसका अवलोकन कर रहे हैं । गुलाब का फूल देखने के बाद अगर आपके दिमाग में जो कुछ भी आता है, जैसे कि कोई भूतकाल की स्मृति, कोई कल्पना, कोई लेबल जैसे कि गुलाब का फूल अच्छा है या बुरा है, इत्यादि । अगर ऐसा हो रहा है, तो आप गुलाब का अवलोकन नहीं कर रहे हैं । आप किसी तय किये हुए दृष्टिकोण से उसे देख रहे हैं अतः यह अवलोकन नहीं हुआ । यह तो आपका ही दृष्टिकोण हुआ, जिसे आपने गुलाब के फूल पर प्रक्षेपित किया है ।
जिस तरह से आपने गुलाब के फूल का अपने दृष्टिकोण से अवलोकन किया, उसी तरह से अगर किसी तय किये हुए दृष्टिकोण से आपने अपने मानसिक तंत्र का, उस में निर्मित होने वाले डर, निराशा, चिंता का अवलोकन किया है, तो उसे हम अवलोकन नहीं कह सकतें, क्योंकि आपने किसी तय किये हुए नजरिये से अपने मानसिक तंत्र को देखा है और आपने जिस नजरिये से उसे देखा है, आपको वहीं नजरिया अपने मानसिक तंत्र को देखते समय दिखाई दिया है, ना कि वो जो आप ने अवलोकन किया है ।
अगर आप गुलाब के फूल को ‘सिर्फ देखते हैं’, बिना किसी दृष्टिकोण के, बिना कोई लेबल या टेग लगाये हुए, बिना किसी पक्षपात के, आप अगर सिर्फ देखेंगे, तब आपके भीतर कुछ अलग घटित होगा तथा इस प्रकिया को ही हम ‘अवलोकन’ कहेंगे । इस वाक्य को फिर से दोहराता हूँ, अगर आप गुलाब के फूल को ‘सिर्फ देखते हैं’, बिना किसी दृष्टिकोण से, बिना कोई लेबल लगाये हुए, बिना किसी पक्षपात के, आप अगर सिर्फ देखेंगे, तब आपके भीतर कुछ अलग घटित होगा तथा इस प्रकिया को हम ‘अवलोकन’ कहेंगे ।
तो अब सवाल यह है कि क्या हम अपने मानसिक तंत्र को बिना किसी नजरिये के सिर्फ देख सकते हैं? सवाल दोहरता हूँ, क्या हम अपने मानसिक तंत्र को बिना किसी नजरिये के सिर्फ देख सकते हैं? अगर ‘हाँ’, तो यहाँ पर जादू हो जाएगा ।
आप उस तंत्र को, विचारों को, समस्याओं को, वैसे ही देखेंगे जैसे वे हैं । अगर आप आपके भीतर जो घट रहा है, उसे जैसा घट रहा है, वैसे ही अगर देख पा रहे हैं, तो यह पूरा तंत्र छूट जाता है, क्योंकि आपके पास कोई नजरिया नहीं है, कोई दृष्टिकोण नहीं है, कोई तय किया हुआ विचारों का ढांचा नहीं है, आप सिर्फ देख रहे हैं । जब आप सिर्फ देखते हैं, तब आपको पता होता है कि, आपके मन में जो कुछ आया है, वह चला जाएगा । उन समस्याओं को, विचारोकों को, मन से निकालने का या उनसे भागने का आप प्रयास नहीं करतें, आप सिर्फ देखते हैं, बिना किसी जजमेंट के । जो आपके भीतर आया है, वह इसीलिए रुकता है, क्योंकि हम उसे किसी नजरिये से देखते हैं, उसे कोई लेबल लगाते हैं, उस पर कोई जजमेंट लेते हैं ।
जैसे ही हम ‘सिर्फ देखते’ हैं, वैसे ही हम उस पूरे मानसिक तंत्र से जहाँ पर समस्याएँ निर्मित हो रही हैं, उससे मुक्त हो जाते हैं । हम समस्याओं के अलग-अलग हिस्से पर काम करने की बजाय पूरे मानसिक तंत्र के ऊपर काम करते हैं एवं उस मानसिक तंत्र को ही विलीन करने की दिशा में आगे बढ़ते हैं । जैसे ही हम बिना किसी दृष्टिकोण से खुद के भीतर देखना शुरू करते हैं, हमें दिखाई देने लगता है कि किस तरह से हमारा मन गैर जरूरी समस्याएँ निर्मित कर रहा है ।
उन समस्याओं में उलझ रहे हैं और खुद को अंदर से तोड़ रहे हैं । हमें अपनी मूर्खता दिखाई देने लगती है, जब मूर्खता दिखाई देती है, तो यह मूर्खता अपने आप छूट जाती है । इसके लिए किसी ट्रेनिंग की जरूरत नहीं पड़ती ।
किन्तु क्या सिर्फ यह बताने से ही काम चलेगा? नहीं, आपको अवलोकन करना होगा, भीतर उतरना होगा, उस तंत्र को समझना होगा, जो समस्याएँ निर्मित करने में लगा हुआ है । याद रखियें जब मूर्खता दिखाई देगी, वह छूट जाएगी । अगर वह नहीं छूट रही है, तो इसका सीधा सा मतलब है, हम अवलोकन करने में सक्षम नहीं है ।
अब हम सीधे तौर पर “समस्याएँ निर्मित करने वाले मानसिक तंत्र” का अवलोकन करने से पहले अवलोकन की प्रक्रिया को समझने के लिए कुछ छोटे-छोटे प्रयोग करेंगे । रोजमर्रा की ज़िन्दगी में आप अलग-अलग लोगों से मिलते हैं, खाना खाते हैं, चीजों को देखते हैं, इत्यादि । अब हम घटनाओं और क्रियाओं को देखेंगे, बिना कोई दृष्टिकोण से, बिना किसी नजरिये के, बिना कोई जजमेंट लिए हुए और बिना कोई लेबल लगाये हुए । हम सिर्फ और सिर्फ देखेंगे और वर्तमान में उपस्थित रहेंगे ।
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